भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
'''नामविश्वासकलि वर्णन-3''' (87)
(87) दमु दुर्गम, दान, दया , मख, कर्म , सुधर्म अधीन सबै धनको। तप, तीरथ , साधन, जोग, बिरागसों होइ , नहीं दृढ़ता तनको।। कलिकाल कराल में ‘राम कृपालु’ यहै अवलंबु बडो मनको।। ‘तुलसी’ सब संजमहीन सबै, एक नाम -अधारू सदा जनको।। (88) पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की। रामकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रहलाद न ध्रुवकी।। अब जोर जरा जरि गातु गयो, मम मानि गलानि कुबानि न मूकी। नीके कै ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर आखर दूकी।।
</poem>