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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} (केवल वयस्कों के लिए) '''''रस से…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
(केवल वयस्कों के लिए)
'''''रस से पावन, हे मन-भावन विधना ने विरचा ही क्या है।'''''
::::::::(त्रिभंगिमा)
तीर्थाधिराज
श्री जगन्नाथ जी की मंदिर की चौकी में
जो मिथुन मूर्तियाँ लगी हुई
मैं उन्हें एक जगह पर ठिठका हूँ-
प्राकृतिक नग्नता की सुषमा में ढली हुई
नारी घुटतनों के बल बैठी;
उसकी नंगी जंघा पर नंगा शिशु बैठा,
अपने नन्हें-नन्हें, सुकुमार,
::अपरिभाषित सुख अनुभव करते हाथों से
अपनी जननी के पीन पयोधर को पकड़े,
ऊपर मुँह कर
दुद्ध पीता-
अधरों में जैसे तृषा दुग्ध की
::तृष्णा स्तन की तरस परस की तृप्त हुई
::भोली-भाली, नैसर्गिक-सी मुस्कान बनी
::गालों, आँखों,पलकों, भौहों से छलक रही।
::(मातृत्व-सफलता मूर्तित देखी और कहीं?)
प्राकृतिक नग्नता के तेजस में ढला हुआ
नर पास खड़ा;
नग्ना नारी
अपने कृतज्ञ, कामनापूर्ण, कोमल, रोमांचित हाथों से
पति-पुष्ट दीर्घ-दृढ़ शिश्न दंड क्रियाएँ पकड़,
हो उर्ध्वमुखी,
अपने रसमय अधरों से पीती,
::अधरामृत-मज्जित करती-
मुख-मुद्रा से बिंबित
वह किस, कैसे, किसने सुख का
आस्वादन इस पल करती है!-
::(पल काल-चाल में जो निश्चल)।
(जब कला पकड़ती ऐसे क्षण,
उसके ऊपर,
सच मान,
अमरता मरती है)
नवयुवक नग्न
जैसे अपना संतोष और उल्लास
चरम सीमा तक पहुँचा देने को,
अपने उत्थित हाथों से पकड़ सुराही,
:::मदिरा से पूऋत*,
:::मधु पीता है-आनंद-मग्न!
(लगता जिस पर यह घटता
वह कृतकृत्य मही।)
ईर्ष्या न किसे उससे
जो ऊपर से नीचे तक
ऐसा जीवन जिया
कि ऐसा जीता है।
(हर सच्चा-सीधा कलाकार
अभिव्यक्त वही करता
जो वह जीता,
जो उसपर बीता है।)
::इस मूर्तिबंध का कण-कण
::कैसी जिजीविषा घोषित करता!
::यह जिजीविषा, या कुछ भी,
::उसको मैं अपने पूरे तन, पूरे मन, पूरी वाणी से
::नि:शंक समर्थित, अनुमोदित, पोषित करता।
अमृत पीकर के नहीं,
अमर वह होता है,
पा मर्त देह,
जो जीवन-रस हर एक रूप,
:::हर एक रंग में
::छककर, जमकर पीता है।
::इतने में ही कवि की सारी रामायाण,
::::सारी गीता है।
'मधुशाला' का पद एक
अचानक कौंध गया कानों में-
::'नहीं जानता कौन, मनुज
::आया बनका पीनेवाला?
::कौन, अपरिचित उस साक़ी से
::जिसने दूध पिला पाला?
:::जीवन पाकर मानव पीकर
:::मस्त रहे इस कारण ही,
::जग में आकार सबसे पहले
::पाई उने मधुशाला।'
क्या इसी भाव पर आधारित यह मूर्ति बनी?
क्या किसी पुरातन पूर्व योनि में
मैंने ही यह मूर्ति गढ़ी?
प्रस्थापित की इस पावनतम देवालय में,
::साहस कर, दृढ़ विश्वास के लिए-
::कोई समान धर्मा मेरा
::तो कभी जन्म लेगा
::जो मुझको समझेगा?
यदि मूर्ति देख यह
तेरी आँखें नीचे को गड़तीं
::::लगती है तुझे शर्म,
(जीवन के सबसे गहरे सत्य
प्रतीकों में बोला करते।)
तो तुझे अभी अज्ञात
::::कला का,
::::जीवन का,
::::धर्म का,
::मूढ़मति,
::::गूढ़ मर्म।
----
*पूरित;पूऋत, प्रूफ की ग़लती से नहीं, सचेष्ट, एक विशेष ध्वन्यार्थ देने के लिए।
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
(केवल वयस्कों के लिए)
'''''रस से पावन, हे मन-भावन विधना ने विरचा ही क्या है।'''''
::::::::(त्रिभंगिमा)
तीर्थाधिराज
श्री जगन्नाथ जी की मंदिर की चौकी में
जो मिथुन मूर्तियाँ लगी हुई
मैं उन्हें एक जगह पर ठिठका हूँ-
प्राकृतिक नग्नता की सुषमा में ढली हुई
नारी घुटतनों के बल बैठी;
उसकी नंगी जंघा पर नंगा शिशु बैठा,
अपने नन्हें-नन्हें, सुकुमार,
::अपरिभाषित सुख अनुभव करते हाथों से
अपनी जननी के पीन पयोधर को पकड़े,
ऊपर मुँह कर
दुद्ध पीता-
अधरों में जैसे तृषा दुग्ध की
::तृष्णा स्तन की तरस परस की तृप्त हुई
::भोली-भाली, नैसर्गिक-सी मुस्कान बनी
::गालों, आँखों,पलकों, भौहों से छलक रही।
::(मातृत्व-सफलता मूर्तित देखी और कहीं?)
प्राकृतिक नग्नता के तेजस में ढला हुआ
नर पास खड़ा;
नग्ना नारी
अपने कृतज्ञ, कामनापूर्ण, कोमल, रोमांचित हाथों से
पति-पुष्ट दीर्घ-दृढ़ शिश्न दंड क्रियाएँ पकड़,
हो उर्ध्वमुखी,
अपने रसमय अधरों से पीती,
::अधरामृत-मज्जित करती-
मुख-मुद्रा से बिंबित
वह किस, कैसे, किसने सुख का
आस्वादन इस पल करती है!-
::(पल काल-चाल में जो निश्चल)।
(जब कला पकड़ती ऐसे क्षण,
उसके ऊपर,
सच मान,
अमरता मरती है)
नवयुवक नग्न
जैसे अपना संतोष और उल्लास
चरम सीमा तक पहुँचा देने को,
अपने उत्थित हाथों से पकड़ सुराही,
:::मदिरा से पूऋत*,
:::मधु पीता है-आनंद-मग्न!
(लगता जिस पर यह घटता
वह कृतकृत्य मही।)
ईर्ष्या न किसे उससे
जो ऊपर से नीचे तक
ऐसा जीवन जिया
कि ऐसा जीता है।
(हर सच्चा-सीधा कलाकार
अभिव्यक्त वही करता
जो वह जीता,
जो उसपर बीता है।)
::इस मूर्तिबंध का कण-कण
::कैसी जिजीविषा घोषित करता!
::यह जिजीविषा, या कुछ भी,
::उसको मैं अपने पूरे तन, पूरे मन, पूरी वाणी से
::नि:शंक समर्थित, अनुमोदित, पोषित करता।
अमृत पीकर के नहीं,
अमर वह होता है,
पा मर्त देह,
जो जीवन-रस हर एक रूप,
:::हर एक रंग में
::छककर, जमकर पीता है।
::इतने में ही कवि की सारी रामायाण,
::::सारी गीता है।
'मधुशाला' का पद एक
अचानक कौंध गया कानों में-
::'नहीं जानता कौन, मनुज
::आया बनका पीनेवाला?
::कौन, अपरिचित उस साक़ी से
::जिसने दूध पिला पाला?
:::जीवन पाकर मानव पीकर
:::मस्त रहे इस कारण ही,
::जग में आकार सबसे पहले
::पाई उने मधुशाला।'
क्या इसी भाव पर आधारित यह मूर्ति बनी?
क्या किसी पुरातन पूर्व योनि में
मैंने ही यह मूर्ति गढ़ी?
प्रस्थापित की इस पावनतम देवालय में,
::साहस कर, दृढ़ विश्वास के लिए-
::कोई समान धर्मा मेरा
::तो कभी जन्म लेगा
::जो मुझको समझेगा?
यदि मूर्ति देख यह
तेरी आँखें नीचे को गड़तीं
::::लगती है तुझे शर्म,
(जीवन के सबसे गहरे सत्य
प्रतीकों में बोला करते।)
तो तुझे अभी अज्ञात
::::कला का,
::::जीवन का,
::::धर्म का,
::मूढ़मति,
::::गूढ़ मर्म।
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*पूरित;पूऋत, प्रूफ की ग़लती से नहीं, सचेष्ट, एक विशेष ध्वन्यार्थ देने के लिए।