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इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम् |
मम हृदय कंज निवास कुरु कामादि खल दल गंजनम् || मनु जाहि राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो | करुना निधान सुजान शील सनेह जानत रावरो || एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली | तुलसी भवानी पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली || जानि गौरि अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाय कहि | मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे ||