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Kavita Kosh से
वृक्ष हूं इसलिये जानता सत्य हूं,
घुल गया आज कितना हवा में जहर।
लूटते मित्र को पा अंधेरा घना
बैठ सुनते उजाले उसी से व्यथा,
राम का राज्य बनना इसे था मगर
रावणों की यहंा यहा पल रही है कथा,
देखकर सोचता हूं ,लुटे मित्र को,
मच गया आज कितना यहां पर कहर।
थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
जनकी के सुभग देश में किस तरह
घट रही रोज ही यह नयी त्रासदी,
स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के,
सो गया आज कितना हमारा शहर।
घेर कर मार डाला गया छांव में
एक अभिमन्यु मेरी नजर के सामने,
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
कांपते पल घृणा की हदें नापते,
फट गया है हृदय दर्द से रात का,
रह गया है आज कितना ठगा हर पहर।
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