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|संग्रह=सच कहने के लिए / अनिल विभाकर
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जो जानते हैं शबरी के जूठे बेर का स्वाद
 
उन्हें कभी नहीं होता भरम
 वे खूब ख़ूब जानते हैं कि क्या होता है धरम 
क्या होता है करम
 
जो नहीं खींचती अपनी लकीर
 
वह रुक्मिणी बनती है
 
जो खींचती है, वह राधा
 
मीरा भी बनती है वह
 
उसे कभी नहीं होता धूल और धरम का भरम
 राधा बेहिचक दे देती है अपनी चरणधूलिचरण-धूलि
पीड़ा से परेशान कृष्ण के लिए
 मीरा बेहिचक पी लेती है प्याला जहर ज़हर का 
रुक्मिणी के दर से लौट जाते हैं नारद खाली हाथ
 
धर्म के भरोसे बैठी रुक्मिणी
 मौका मौक़ा मिलने पर भी नहीं समझ पाती कदम्ब की भाषा 
लगता है एकतारा बजाने के बाद भी
 भूल गए थे नारद शबरी को।को ।</poem>
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