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{{KKRachna
|रचनाकार=शिवदयाल
|संग्रह= }}{{KKCatKavita}}<poemPoem>'''रवीन्द्रनाथ को पढ़ते हुए...'''
उन्होंने बनाई मशीनें
मशीनों ने बनाए सामान
और सामान
आदमी बनाने लगे
-कुछ कृत्रिम आदमी
कुछ हल्के आदमी
कवियों ने इन आदमियों पर
लिखीं कविताएँ
कलाकारों ने कलाकृतियाँ बनाईं
दार्शनिकों ने सिद्धान्त-निरूपण किए
असल आदमी कहाँ रह गया
जिसमें स्वाभाविकता थी
जिसमें कुछ वजन वज़न था
जो बिना दिखावे के
देने का धर्म निभाता था
जैसे कि सूरज, वृक्ष और नदियाँ
जिसकी आत्मा
विश्वप्रकृति के साथ थी एकाकार...
कहाँ रह गया?
हम सबको
सभ्यता की इस महानतम खोज में
जुट जाना चाहिए
-बिना दिखावे के
लेकिन इस अभियान में वही जुटे
जो दोनों तरह के आदमियों के बीच
भले ही वह
कवि-कलाकार-दार्शनिक न हो
वह चाहे कुछ
बनावटी और हल्का ही हो
लेकिन मौलिकता और आडम्बर के बीच