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पगडंडियाँ कई किसिम की हैं, जो खो गयी हें | गई हैं । ये पगडंडियाँ हैं उन खुरदुरे स्नेहिल रिश्तों की, जो आदमी से आदमी को एक आत्मीय पुलक से जोड़ती हैं; ये पगडंडियाँ उस आन्तरिकता की हैं जो कविता बनती है | अंदर जो स्वाभाविक लय की एक सोंधी प्यास होती है, वही काव्य को महकाती है | ये पगडंडियाँ उस घनिष्ठ पारस्परिकता की हैं, जो हमारी अस्मिता की सही पहचान है | इस संकलन की कविताओं में इन सभी पगडंडियों को लौटने का आग्रह है | कम से इनका अभीष्ट तो यही है | ये सभी रचनाएँ आज से लगभग डेढ़ दशक पूर्व रची गयीं | गीत की प्रत्यक्ष-परोक्ष निरन्तरता के बीच कुछ मनस्थितियाँ अतुकांत लयात्मकता की भी रहीं हैं, जिनसे ही इन कविताओं का जन्म हुआ | संकलन के अंत में सम्मिलित दोनों लंबी इतिवृत्तात्मक रचनाओं को सृष्टि एक आंतरिक भावावेश में हुई | अशोक के कलिंग-विजय के प्रसंग को किसी व्याख्या की दरकार नहीं है और न ही उसी भाँति पौराणिक कच-देवयानी आख्यान को | ये दोनों रचनाएँ एक ही समय की हैं | परमपूज्य स्व० पं. सोहनलाल द्विवेदी की 'उर्वशी' और 'वासवदत्ता' जैसी कालजयी रचनाओं को ईस्वी सन १९७३ के पूर्वार्ध में उनके श्रीमुख से सुनने के बाद मन में जो एक प्रवाहमयी लय का विस्तार हुआ, उसी से इन रचनाओं का विस्फोट हुआ | कविता में छंद की सार्थकता को पूरी तरह स्वीकारते हुए भी मुझे लगता रहा है कि छंद के अनुशासन से कभी-कभी मुक्ति कामना निरर्थक या निंदनीय नहीं है | शर्त एक ही है कि वह स्वाभाविक हो और छंदानुशासन से ही उपजे | पहले छंद हो, तभी उससे मुक्ति की बात हो सकती है | इन रचनाओं में भी मन की लयात्मकता सर्वत्र उपस्थित है, चाहे इनमें छंद के पारंपरिक अनुशासन से अलग होने की इच्छा रही है | छंदानुशासन से मुक्ति की यह यात्रा कहाँ तक सही दिशा में रही, इसका निर्णय तो सुधी पाठक ही करेंगे |
ये सभी रचनाएँ आज से लगभग डेढ़ दशक पूर्व रची गईं । गीत की प्रत्यक्ष-परोक्ष निरन्तरता के बीच कुछ मनस्थितियाँ अतुकांत लयात्मकता की भी रहीं हैं, जिनसे ही इन कविताओं का जन्म हुआ । संकलन के अंत में सम्मिलित दोनों लंबी इतिवृत्तात्मक रचनाओं को सृष्टि एक आंतरिक भावावेश में हुई । अशोक के कलिंग-विजय के प्रसंग को किसी व्याख्या की दरकार नहीं है और न ही उसी भाँति पौराणिक कच-देवयानी आख्यान को । ये दोनों रचनाएँ एक ही समय की हैं । परमपूज्य स्व० पं. सोहनलाल द्विवेदी की 'उर्वशी' और 'वासवदत्ता' जैसी कालजयी रचनाओं को ईस्वी सन १९७३ के पूर्वार्ध में उनके श्रीमुख से सुनने के बाद मन में जो एक प्रवाहमयी लय का विस्तार हुआ, उसी से इन रचनाओं का विस्फोट हुआ । कविता में छंद की सार्थकता को पूरी तरह स्वीकारते हुए भी मुझे लगता रहा है कि छंद के अनुशासन से कभी-कभी मुक्ति-कामना निरर्थक या निंदनीय नहीं है । शर्त एक ही है कि वह स्वाभाविक हो और छंदानुशासन से ही उपजे । पहले छंद हो, तभी उससे मुक्ति की बात हो सकती है । इन रचनाओं में भी मन की लयात्मकता सर्वत्र उपस्थित है, चाहे इनमें छंद के पारंपरिक अनुशासन से अलग होने की इच्छा रही है । छंदानुशासन से मुक्ति की यह यात्रा कहाँ तक सही दिशा में रही, इसका निर्णय तो सुधी पाठक ही करेंगे ।
क्षितिज ३१० अरबन एस्टेट- २
हिसार -१२५००५
- '''कुमार रवीन्द्र'''
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