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Kavita Kosh से
फ़ॉर्मेट और वर्तनी सुधार
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'''माँ, यदि तुम होतीं......'''
हथेलियाँ भींचते
यों ही दीखने लगते?
क्या मैं दाँव पर लगा पाती
जिनके निर्वसन करने के नए तरीकों में
कृष्ण को पहले ही दे दिया जाता निर्वासन
या वे स्वयं यमुना-तट परगोपियों के वस्त्र छिपातेप्रतीक्षा करतेमेरे शरणागत होने की? और भीमाँ !
चक्रव्यूह से निकलने का उपाय
सुनने से पहले ही
न बतातीं तुम?
क्या यह संभव नहीं
व्यूह-मुक्ति की युक्ति
तुम्हारे हाथ देने में
डरते रहे हों पुरुष-श्रेष्ठ?
या युक्ति उस वेदमंत्र-सी थी
जो तुम्हारी नाल से भी बँधी
बेटियों के कान में
पिघला सीसा बन गिरता?
माँ! तुम होतीहोतीं
तो देखतीं
तुम्हारी असमय की नींद ने
कैसा घेरा है मुझे|
बचने के उपाय न जानते हुए भी
लड़ना तो जानता था तुम्हारा पुत्र
लड़ कर मरा
तुम्हारे ही
संस्कार लिए हैं मैंने भी।
तुम होतीं
तो पूछतींपूछती
कायरों - सी बिन लड़े मारी जाऊँ?
अभिमन्यु का अंत देखने के बाद भी
व्यूह-मुक्ति की युक्ति न सुझातीं तुम?
और
हँस तो देतीं तुम।
यदि तुम होतीहोतीं , तो..... !
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