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कौन करे दिये-बत्तियां
तुमने जो लिखी नहीं मैंने जो पढ़ी नहीं आंखों में तैर रहीं चिट्ठियां
छाती से
सूरज का दग्ध-लाल गोला लुढ़काकर,
अभी अभी बैठा हूं
आंखों के दरवाज़े पलकें उढ़काकर।
भीतर ही भीतर
लगता है कोई खोद रहा खत्तियां।
सुबह-शाम
विष की थैली उलटाकर
समय-सांप सरका।
नेह-छोह से तुमने
लीपा था पोता था, भीतर अहसासों का चौरा दरका।
खेल हैं, खिलौने हैं,
किसके संग करूं कहो फिर सग्गे-मित्तियां।
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