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Kavita Kosh से
कौन करे दिये-बत्तियां
छाती से
सूरज का दग्ध-लाल गोला लुढ़काकर,
अभी अभी बैठा हूं
भीतर ही भीतर
सुबह-शाम
विष की थैली उलटाकर
नेह-छोह से तुमने
खेल हैं, खिलौने हैं,
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