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एक बेनूर-से कमरे में सोया हुआ शायर (मैं)
सोचता है कि उसकी पलकों पर
मचल उठेगा तूफान कोई
जाने क्या देखकर पता ही नहीं
जैसे उसकी कोई ख़ता ही नहीं
एक करवट ने रूख़ को यूँ मोड़ा
नज़र जा लगी दरीचे से
किसी पैरहन ने चेहरे को ओढ़ लिया
ज़ायक़ा जिस्म का चिपक-सा गया
बड़ी अजीब-सी एक घबराहट
ज़रा क़रीब-सी एक टकराहट
रूह में घुल-सी गई
कभी छान कर बारीक़ से लम्हे
कभी चुन कर पके हुए मौसम
जाने क्यों जमा करता है
एक बेनूर-से कमरे में सोया हुआ शायर
सोचता है कि उसकी पलकों पर
मचल उठेगा तूफान कोई
जाने क्या देखकर पता ही नहीं
जैसे उसकी कोई ख़ता ही नहीं
एक करवट ने रूख़ को यूँ मोड़ा
नज़र जा लगी दरीचे से
किसी पैरहन ने चेहरे को ओढ़ लिया
ज़ायक़ा जिस्म का चिपक-सा गया
बड़ी अजीब-सी एक घबराहट
ज़रा क़रीब-सी एक टकराहट
रूह में घुल-सी गई
कभी छान कर बारीक़ से लम्हे
कभी चुन कर पके हुए मौसम
जाने क्यों जमा करता है
एक बेनूर-से कमरे में सोया हुआ शायर