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{{KKRachna
|रचनाकार=अलका सिन्हा
|संग्रह= }}{{KKCatKavita‎}}
<poem>
लिखी जा रही हैं कविताएंकविताएँअख़बार की ज़मीन पर।पर ।
फड़फड़ा रहे हैं कहानियों के पन्ने
पुस्तकालयों के रैक्स पर।पर ।
खींसें निपोर रहे हैं श्रोता
मंच के मसखरों पर।पर ।
बांग बाँग दे रहे हैं आलोचकटी.वी. टी०वी० स्क्रीन पर।पर ।
मंत्रणा हो रही है विद्वान, मनीषियों में
कि बांझ बाँझ हो गई है लेखनी।
उधर जंगल में नाच रहा है मोर !
</poem>
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