भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिकवा / इक़बाल

4,606 bytes added, 14:43, 6 जून 2011
क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ , महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवीं हमनवां मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझकोशिकवा अल्लाह से ख़ाकमहै बजा शेवा तसलीम में कि मशहूर हैं हमक़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़ूर मज़बूर हैं हमसाजें खामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हमनाला आता है अगर लब पे तो माज़ूर हैं हम
ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
कूगरख़ूगर-ए-हम्थोज़ हम्ज़ से ड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
थी तो मौज़ूद अज़ल से ही तेरी जात-ए-कदील
फूल था ज़ेर-ए-चमन, पर न परेशान थी
शर्त-ए-इंसाप है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती नसीम ।
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं ...माबूद शज़रकूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे इंसा की नज़रमानता फ़िर अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लमु ने किया काम तेरा
बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी
अहल-ए-चीन चीन में, ईरान में ईरानी सासानी भीइसी मामूरे में बस रहे आबाद थे यूनानी भीइसी दुनिया में यहूदी भी थी, सासानी नसरानी भी पर तेरे नमाम नाम पर तलवार उढाई उठाई किसने
बात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने
थे हमीं एक तेरे मा के आराओं में
खुश्कियों में लड़ते कभी, कभी दरियाओं में
दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं में
कभी अफ़्रीक़ा के तपत तपते हुए सेहराओं में । शान न जँचती थीकलेमा पढ़ते थे हमछांव में तलवारों की हम जो जीते तो जंगों की मुसीमत के लिएऔर लड़ते थे तेरीसर बकफ़ फिरते थे क्या दौलत के लिए  बुत फरोशी के बुत-शिकनी क्यों करतीटल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थेतुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थेतेग क्या चीज है हम तोप से लड़ जाते थे । तू ही कह दे, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किसनेशहर कैसर का जो था, उसको तोड़ा किसने  किसने ठंडा किया आतिशकदा-ए-ईरान को ।किसने फिर ज़िन्दा कियाकौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुईकिसकी  किसकी शमशीर जहाँगीर  किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थेमुँह के बल गिरके हु अल्लाह-ओ-अहद कहते थे आ गया ऐन लड़ाई अगर-वक़्त-ए-नमाज़एक ही खड़े हो गए न कोई बन्दा रहा, न कोई बन्दा नवाज़ तेरी सरकारा में पहुँचे तो सभी एक हुए  तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-शाम फिरेकोह-में और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे दश्त-तो-दश्त हैं, दोर-ए-अंसा को ग़ुलामी के छुड़ाया हमनेतेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमने  फिर भी हमसे घ़िला है कि वफ़ादार नहींहम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं उम्मतें और भी है, उनमें गुनहगार भी हैइनमें काहिल भी है  बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर  बुत सनमख़ानों में कहते के मुसलमान गएहै खुशी उनको कि काबे के निगहबान गएएहसासा तुझे है कि नहींअपना तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं ये शियाकत नहीं के हैं उनके ख़ज़ानेनहीं महफिल में जिन्हें बात भी करवने का अउर  बात ये क्या है कि पहली सी तेरी कुदरत तो है वो कि जिसकी न हद है न   
</poem>
160
edits