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शिकवा / इक़बाल

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जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-बरबद-दहन है मुझको
है बजा शेवा -ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर हैं हम
साजें साज-ए-खामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम
ख़ूगर-ए-हम्ज़ से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
थी तो मौज़ूद अज़ल से ही तेरी जातज़ात-ए-कदीलफूल था ज़ेर-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीं ।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम ।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं माबूद शज़रशजर
खूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे इंसा की नज़र
मानता फ़िर कोई अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरा
बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भीअहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी भीइसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भीइसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी भी
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने?बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किसने ?
थे हमीं एक तेरे मार का आराओं मेंखुश्कियों में कभी लड़ते, कभी दरियाओं मेंदी अज़ानें कभी योरोप के कलीशाओं में
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं में ।
किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई ?
किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थे?
मुँह के बल गिरके 'हु अल्लाह-ओ-अहद' कहते थे ।
आ गया ऐन लड़ाई में अगर-वक़्त-ए-नमाज़
हिब्ला रूहों के ज़मीं बोश हुई क़ौम-ए-हिजाज़ ।
एक ही सम्त में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए ।
महफिल-ए-कौन-मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरे
महल-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे ।
कोह-में दश्त में लेकर तेरा पैग़ाम फिरे
तेरे क़ुरान को सीनों से लगाया हमने ।
फिर भी हमसे ये ग़िला है कि वफ़ादार नहीं?
हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं ।
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।
रहमतें हैं तेरे तेरी अगियार के काशानों पर
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर ।
बुत सनमख़ानों में कहते मुसलमान गए
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए ।
मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के गुलीख़्वान गुनीख़्वान गए
अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए ।
अंदरदन अंददन कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहींअपना अपनी तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं?
ये शियाकत नहीं के , हैं उनके ख़ज़ाने मामूर
नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर
कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर
और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबा-ए-हुज़ूर
कहर तो अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे नायास महींबात ये क्या है कि काफिर को मिले सूद-ओ-खुसूरऔर बेचारों मुसलमानों को फ़कत पहली सी मुदारात नहीं ?
अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं
क्यों मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब
तेरी कुदरत तो है वो कि , जिसकी न हद है न हिसाबतू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाबसह रहरवा-ए-दश्त से उठे हुबाबशाली जदा-ए मौज-ए सराब
बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी हैक्या तेरे नाम पे मरने के आवज़ एवज़ भारी है ?
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