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शिकवा / इक़बाल

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टिप्पणी: शिकवा {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहम्मद इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।}}{{KKCatGhazal‎}}‎
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क्यूं '''टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।''' क्यूँ ज़ियाकार बनूंबनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ, महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवां हमनवाँ मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको
है बजा शेवा-ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर हैं हम
साज-ए-खामोश ख़ामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम
खुदाख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्ज़ से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की
कलेमा पढ़ते थे हम छांव छाँव में तलवारों की ।
हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे ।
तुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
तेग क्या चीज चीज़ है, हम तोप से लड़ जाते थे ।
नक़्श तौहीद का हर दिल पे बिठाया हमने
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं
हम वह शोख़ सा दामां, तुझे याद नहीं ?
 
 
 
 
 
</poem>
(कविता ख़त्म नहीं हुई और इसमें बहुत अशुद्धियाँ है । इन्हें शब्दार्थों के साथ शीघ्र ही सुधारा जाएगा । सहयोग का स्वागत है । है।)
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