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शिकवा / इक़बाल

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और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे ?
दश्त-तो-दश्त हैं, दरिया भी न छोड़े हमने
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।
सफ़ा-ए-दहर से क़ातिल बातिल<ref>असत्य, शून्य । ये मानना के दुनिया को चलाने वाला कोई नहीं है । अनिस्लमी । </ref> को मिटाया हमने
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबों काबे को ज़बीनों <ref> भौंह </ref>पे बसाया हमने
तेरे क़ुरान को सीनों से लगाया हमने ।
हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं ।
उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैंहिज़ वाले भी हैं, मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार <ref>अभिमानी, शब्दार्थ - घमंड के नशे में मस्त</ref> भी हैं ।इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल <ref>नादान </ref> भी हैं, हुशियार भी है
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।
रहमतें हैं तेरी अगियार के काशानों पर
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर ।
बुत सनमख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए ।
मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के गुनीख़्वान गए
अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए ।
ज़िंदाज़न कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहीं?
अपनी तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं?
और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबा-ए-हुज़ूर ।
अब वो अल्ताफ़ अल्ताफ़ref>दया </ref> नहीं, हम पे इनायात महीं<ref> मेहरबानी </ref> नहीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं ?
क्यों मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब?तेरी कुदरत तो है वो, जिसकी न हद है न हिसाबतू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाब<ref>बुलबुला </ref> ।रहरवा-ए-दश्त शाली जदा-ए मौज-ए सराब
बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है
क्या तेरे नाम पे मरने के एवज़ भारी है ?
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