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आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िब्ला<ref>नमाज अता करने की दिशा, भारत में पश्चिम की तरफ़</ref> रू हो<ref>मक्के के रुख होकर </ref> के ज़मीं बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़ <ref>मुस्लिम क़ौम। हिजाज़ वो अरबी प्रांत है जिसमें मक्का और मदीना हैं ।</ref> ।
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़ <ref> अयाज़ नाम का सुल्तान महमूद ग़ज़नी का एक ग़ुलाम था जिसकी बन्दगी से ख़ुश होकर सुल्तान ने उसे शाह का दर्जा दिया था और लाहौर को सन् १०२१ में बड़ी मुश्किलों से जीतने के बाद, उसे वहाँ का राजा बनाया था । </ref>
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़ ।
बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है ।
क्या तेरे नाम पे मरने के का एवज़ भारी ख़्वारी है ?
बनी अगियार की अब चाहने वाली दुनिया।
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया ।
हम तो रुख़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया।
फ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया ।
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे ।
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे ?
अपने शअदाओं पर ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मानी ?
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी <ref>अरब का पैगम्बर पैग़म्बर, यानि मुहम्मद </ref> को छोड़ा ?
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा ?
इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी <ref>रोमांच, पुलक</ref> को छोड़ा?
रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी को छोड़ा ?
ज्यादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रिज़ा भी न सही ।
मुज़्तरिब<ref>बेचैन</ref> दिल सिफ़त-ए-क़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदी ए आईन<ref>विधान, नियम</ref>-ए-वफ़ा भी न सही ।
कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई <ref>अपना, जुड़ा</ref> है।
बात कहने की नहीं, तू भी तो हरजाई है ।
इसके सीने में हैं नग़मों का तलातुम<ref>तूफ़ान</ref> अबतक ।
क़ुमरियां साख़-ए-सनोवरसनोबर<ref>पाईन, एक प्रकार का पेड़ ।</ref> से गुरेज़ां भी हुई ।
पत्तिया फूल की झड़-झड़ की परीशां भी हुई ।
वो पुरानी रविशें बाग़ की वीरां भी हुई ।