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Kavita Kosh से
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबे को ज़बीनों <ref>भौंह</ref> पे बसाया हमने
उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं ।
इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल<ref>नादान </ref> भी हैं, हुशियार भी है
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।