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शिकवा / इक़बाल

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क्यूँ ज़ियाकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा<ref>कल की चिन्ता</ref> न करूँ, महव<ref>खोया रहना</ref>-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमअतंगोश हमा तन गोश<ref>चुपचाप सुनना </ref> रहूँ
हमनवा<ref> साथी</ref> मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं<ref>रेगिस्तान</ref> में ।
शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की
कलेमा<ref> ये कहना कि 'अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका संदेशवाहक था', इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रयुक्त वंदनवाक्य</ref> पढ़ते थे हम छाँव में तलवारों की ।
बुत फरोशी के एवज़ बुत-शिकनी क्यों करती ?
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे ।
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
तेग़<ref>तलवार</ref> क्या चीज़ है, हम तोप से लड़ जाते थे ।
नक़्श तौहीद<ref>त'वाहिद, एकत्व. यानि ये कहना कि अल्लाह एक है और उसके स्वरूप, तस्वीर, मूर्तियां या अवतार नहीं हैं, अरबी गिनती में वाहिद का अर्थ 'एक' होता है ।</ref> का हर दिल पे बिठाया हमने
तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने ।
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।
सिफ़हा-ए-दहर<ref>धरती की सतहदुनिया का चेहरा</ref> से बातिल<ref>असत्य, शून्य । ये मानना के दुनिया को चलाने वाला कोई नहीं है । अनिस्लमी । </ref> को मिटाया हमने ।
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबे को ज़बीनों <ref>भौंह</ref> पे बसाया हमने
नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर ।
कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर ।
और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबावादा-ए-हुज़ूर हूर
अब वो अल्ताफ़<ref>दया</ref> नहीं, हम पे इनायात<ref> मेहरबानी </ref> नहीं
शब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी गए ।
दिल तुझे दे भी गए ,अपना सिला ले भी गए ।
आके आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए ।
आए उश्शाक़ <ref>आशिक़ का बहुवचन</ref>, गए वादा-ए-फरदा लेकर ।
उम्मत-ए-अहद-मुरसल भी वही, तू भी वही ।
फ़िर फिर ये आरज़ू गुस्तगीआजुर्दगी<ref>चिढ़ाना</ref>, ये ग़ैर-ए-सबब क्या मानी ?
अपने शअदाओं पर ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मानी ?
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