भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
वे सब भी
कुदरती तौर पर
पर, रात अंधेरी अँधेरी थीऔर, अंधेरे अँधेरे में पूछी गईं उनकी पहचानें
जो उन्हें बतानी थीं
और, बताना उन्हें वही था जो उन्होंने सुना था
क्योंकि देखा और दिखाया तो जा नहीं सकता था कुछ भी
और, अगर कहीं कुछ दिखाया जाने को था भी
तो उसके लिए भी लाज़िम था कि
तो, आवाज़ें ही पहचान बनीं-
आवाज़ें ही उनके अपने-अपने धर्म,
हवा भी उनके लिए आवाज़ थी, कोई छुअन नहीं
कि रोओं में सिहरन व्यापे।व्यापे ।
वो सिर्फ़ कान में सरसराती रही
और उन्हें लगा कि उन्हें ही तय करना है-
किसी न किसी की ज़रूरत थी
और यों, धर्म तो ख़ैर उनके काम क्या आता,
वे धर्म के काम आ गए।गए ।
धर्म जो भी मिला उन्हें एक क़िताब की तरह मिला-
और वह जंग- जिसमें सबकी हार ही हार है
जीत किसी की भी नहीं,
उसे वे जेहाद कहते।कहते ।
</poem>