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केइ वार / अर्जुनदेव चारण

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|रचनाकार= अर्जुनदेव चारण
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{{KKCatKavita‎}}<poem>म्हे म्हारो नांव भूल जावूं,
भींत माथै खींचदूं कोरी लींगटियां,
भींत सूं म्हारो आंतरो
अेक पूरो इतियास,
आफळूं संवेटण सारु
मारग रा मांडणा
उमर रै भागोड़ै गोवै,
जाळ अर कैर रै ओळै दोळै
चढाय धजा
बण जावूं देवळी
आखा अर जोत रै सागै
रातीजोगै री बोलमा
करवाय दूं केइ वार,
बगत री बाय
थरपीजै नूंवा थांन
आवै नूंवां भोपा
दीरीजै नूंवा परचा
अर म्हे
आं सूं अळगो
भटकतो फिरुं छांणा अर सिणियां नै,
केई वार म्हे
चढ कागदां री पूठ
पून रै सरणाटै पूंगू मनमरजी रा हलका में
करतौ सांनियां
घालतौ उंधी सीधी आडियां
नाचतौ रैवूं
गमण लाधण री लुका छिपी,
जूनी साळां ,ओरण ,नाडियां
सोधतौ फिरुं
कांई ठा किणनै,
केइ वार जद म्हे म्हारो नांव भूल जावूं........
</poem>
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