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Kavita Kosh से
हर ओर प्रपातों ही प्रपातों का प्रकाश
धरती पे गिरे टूट के जैसे आकाश
शंकर की जटाओं से कधी टूट के जैसे कढ़ी ज्यों गंगा
रावण की भुजाओं ने उठाया आकाश