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Kavita Kosh से
जब तक सुप्त मृगेंद्र है, गीदड़ तू ही शेर
यह सँकरीला घात घाट है, दो असि एक न म्यान
आन धरो तो सिर नहीं, सिर जो धरो न आन
एक बार ही दे सका, प्राण, यही संकोच'
अंग-अंग छलनी बने, फिर भी रुकीं रुकी न साँस
भौं में तेवर देखके मृत्यु न आती पास