भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
घड़ी-घड़ी में वही एक बात! चुप भी रहो
ये हमने माना की कि दुनिया न रही वह दुनिया
बचे हैं दोस्त अभी पांच-सात, चुप भी रहो
ग़ज़ल न पूरी हुई थी अभी की कि उसने कहा,
'बहुत है, खूब है, ग़ालिब भी मात, चुप भी रहो'