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|रचनाकार=गोपालप्रसाद व्यास
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KKPrasiddhRachna
<poem>
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती हैआराम सुधा की एक मित्र मिलेबूंद, बोले, "लाला, तुम किस चक्की तन का खाते हो?<br>दुबलापन खोती हैइस डेढ़ छटांक के राशन आराम शब्द में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।<br>'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता हैक्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूसआराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता हैइसलिए तुम्हें समझाता हूँ, अक्ल मेरे अनुभव से काम करो।<br>करोसंक्रान्ति-काल की बेला हैये जीवन, मर मिटो, जगत में नाम करो।"<br>हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।<br>इस दौड़-धूप में क्या रक्खायौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।<br><br>
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक तपेदिक होती है।<br>तुम उत्पात करोआराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।<br>अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करोआराम शब्द करने-धरने में 'राम' छिपा क्या रक्खा जो भव-बंधन को खोता है।<br>रक्खा बात बनाने मेंआराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।<br>जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने मेंइसलिए तुम्हें समझाता हूँतुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, मेरे अनुभव से काम करो।<br>है मज़ा मूर्ख कहलाने मेंये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।<br><br>-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
यदि करना मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।<br>जाया करता हूँअपने जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँदीए जलने के पहले ही घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।<br>आ जाया करता हूँकरने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।<br>जो ओठ हिलाने में रस मिलता है, वह कभी न हाथ हिलाने में।<br>खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँतुम मुझसे पूछो बतलाऊँमेरी गीता में लिखा हुआ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में।<br>सच्चे योगी जो होते हैंजीवनवे कम-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।<br><br>से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही जाया करता हूँ।<br>आनंद आता हैजो बुद्धिमान जन होते हैंवह सात स्वर्ग, उनसे कतराया करता हूँ।<br>अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता हैदीए जलने जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।<br>जो मिलता नीचे आता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।<br>मेरी गीता तो सच कहता हूँ इस सर में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं,<br>इंजन जैसा लग जाता हैवे कममैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।<br><br>फक करती हैभावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।<br>वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।<br>जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,<br>तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।<br>मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।<br>भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।<br><br> मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।<br>हूँमैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।<br>हूँमैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।<br>हैंछत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।<br>हैंमैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।<br>करोयह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।<br><br/poem>