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मैं नीर भरी दुख की बदली!
 
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
 
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
 
नयनों में दीपक से जलते,
 
पलकों में निर्झारिणी मचली!
 
मेरा पग-पग संगीत भरा
 
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
 
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
 
छाया में मलय-बयार पली।
 
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
 
चिन्ता का भार बनी अविरल
 
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
 
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
 
पथ को न मलिन करता आना
 
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
 
सुधि मेरे आगन की जग में
 
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
 
विस्तृत नभ का कोई कोना
 
मेरा न कभी अपना होना,
 
परिचय इतना, इतिहास यही-
 
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
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