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Kavita Kosh से
कभी तो हँस के, कभी तिलमिला के भी हमने
क़दम को उनके क़दम से मिला के मिलाके रक्खा है
जहाँ किसीकी नज़र भी नहीं लगे उस पर
न राह देखती आशा का दम ही घुट जाये
कहीं पे दिल में झरोखा बनाए बनाके रक्खा है
ज़हर को पीके भी होठों से बाँसुरी फूँकी
अँगूठा साँप के फन पर दबा के दबाके रक्खा है
जहाँ भी हमको मिली राह कोई जानी हुई
कोई तो ऐसा भी होगा जो फिर से देगा छेड़
जहाँ से साज साज़ को हमने बजाके रक्खा है!
कहो ये उनसे, तड़पते बहुत गुलाब हैं आज
उन्हें बहार ने काँटों पे लाके रक्खा है
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