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Kavita Kosh से
फिर भी लगता है कि आँखें ये तेरी नम हैं आज
दो घड़ी मुँह से लगाकर किसी ने किसीने फ़ेंक दिया
एक टूटे हुए प्याले की तरह हम हैं आज
और ही उनकी निगाहों में खिल रहे हैं गुलाब
उनके होंठों होँठों पे छिड़े और ही सरगम हैं आज
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