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शाम का वक्त वक़्त है शाखों शाख़ों को हिलाता क्यों हैतू थके माँदे परिंदों को उडाता उड़ाता क्यों है
स्वाद कैसा है पसीने का ये मज़दूर से पूछ
मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिये फिर हाथ बढाता बढ़ाता क्यों है
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुख से लगाता क्यों है
भूल मत तेरी भी औलाद बडी बड़ी होगी कभी
तू बुज़ुर्गों को खरी-खोटी सुनाता क्यों है
वक्त वक़्त को कौन भला रोक सका है पगलेसूइयाँ घडियों कि की तू पीछे घुमाता क्यों है
प्यार के रूप हैं सब- त्याग, तपस्या, पूजा
जिसने तुझको कभी अपना नहीं समझा ऎ ’नाज़’
हर घडी घड़ी उसके लिये अश्क बहाता क्यों है