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{{KKRachna
|रचनाकार=शहंशाह आलम
|संग्रह=वितान
}}
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<poem>
एक रात
तुम्हारी आंखें बन्द थीं
और मेरी आंखें थीं
खुली हुईं
उस रात
सारी कल्पनाएं
सारे सपने
सारे अवसाद
तुम्हारे हवाले कर
अकेले बादल की तरह
मैं बुद्ध बनने
निकल पड़ा था।
</poem>
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|रचनाकार=शहंशाह आलम
|संग्रह=वितान
}}
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एक रात
तुम्हारी आंखें बन्द थीं
और मेरी आंखें थीं
खुली हुईं
उस रात
सारी कल्पनाएं
सारे सपने
सारे अवसाद
तुम्हारे हवाले कर
अकेले बादल की तरह
मैं बुद्ध बनने
निकल पड़ा था।
</poem>