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|रचनाकार=शहंशाह आलम
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उसने सोचा पहले पाप धो लें
फिर कपड़े धो लेंगे

घाट किनारे की पुरानी सीढि़यों पर बैठा
एक अदद स्त्री-पुरुष का जोड़ा
सूर्य को अस्त होते देख रहा है और
अपने अंदर के सूर्य को उदित कर रहा है

नहाने की जगह संभवतः निश्चित
नहीं होती इस वितान में
पृथ्वी के सबसे एकांत में भी
नहाने की जगह बनाई जा सकती है

पृथ्वी का कितना-कुछ नष्ट हो चुका है
लेकिन घाट अपनी आदिम घटनाओं के साथ
अभी भी सुरक्षित हैं कुछ तो सचमुच
कुछ आत्मा में कुछ हमारी प्रेमिकाओं के भीतर

‘बचाओ! बचाओ! मैं दुखों में डूबा जा रहा हूं’
वह चिल्लाता है पूरे आवेग से
लेकिन कोई नहीं होता उसे वहां बचाने के लिए

मैं न तो किसी झील में नहाया
न किसी ताल-तलैया में
न कुएं के निकट

शायद इसीलिए मुझे तैरना नहीं आया अब तक
शायद इसीलिए घाट मेरे लिए
एक निहायत ही बुरी घटना की तरह रहा है

एक अद्भुत रंग का पक्षी पानी के ऊपर से
उड़ता है पूरे यक़ीन से और
मछली को देख झपट पड़ता है।
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