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किंवा रावण-जय कर फिरने-सा महोत्साह 
पगतल-नत सानुज राम-रूप मुनि थके थाह
'ताड़िका-सुबाहु-विजय की  विजय की इनसे करूँ चाह!'
संशय, भय, विस्मय जागे   
दिग्गज मदांध दुर्दांत भीम दानव वैसे
इनसे भीषण रिपु-शक्ति विजित होगी कैसे?
गूंजेगा गूँजेगा विश्व भला फिर देवों की जय से?
होगी दिक्-दिक् मख पूजा?
. . .
ब्रह्माण्ड कोटि प्रति रोम, त्रस्त गिरते पहाड़
करतल से जलते त्रिभुवन को दे रहे आड़
देख देखा कौशिक ने चकित मुँदे लोचन उघाड़
पल-भर वह रूप अकल्पित
 
करते नभ से जयघोष देव-किन्नर समस्त
शत कोटि भुजा भाव-व्याप्त, सृजनस्रजन-संहार-व्यस्त (स्रजन)
दिग-काल-भ्रष्ट देखे खगोल शत उदित, अस्त
अभिवादन-मिस माँगते क्षमा संपुटित-हस्त
नभ-सुमन-वृष्टि, मुनि करते वैदिक महोच्चार
'जय राम! अखिल जग-शक्ति-शील-सौन्दर्य-सार
जय तरापत्रय-ताप-हरण, भावभव-शरण-करण-कारण उदार
पा तुम्हें विगत माया-निशि
 
जन-जन के अंत:-स्रोत, शक्ति-शुभगति-दाता
आदर्श-चरित, जय! निगमागम-से युग भ्राता
हो निर्बल अबसे कहीं न कोई दुःख पातादुख पाता
तुम निर्धन के धन आये
 
 
लौटे मुनिगन करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
आश्रम से अनति दूर उड़ता जड़ता ज्यों मूर्तिमान
थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समान
कह दिया किसी ने किसीने राजकुँवर युग छवि-निधानमृगया के हित आये हैं आये
. . .
कटि पर घट ले आलुलित-केश, सद्य:स्नाता
चल दी कौशिक-मख-भूमि जिधर थी विख्याता
थे जहाँ बसे सुर-मुनि-सुख-दाता, भावभव-त्राता 
युग अस्ति-नास्ति-से गौर-श्याम, दोनों भ्राता  
जन-सेवा-हित गृह-त्यागी
बस तनिक तुम्हारी चरण-रेणु-हित रही लोट
प्रभु दो कलंकिनी को करुणा की अभय ओट
ढह जायें जिससे कोटि जनम जन्म के पाप-कोट
फूले उदास फुलवारी'
 
गिर-गिर कर उठना चेतनता का यही माप
जन-जीवन पर बस उसी पुरुष की पड़ी छाप
जो कभी न दुःख दुख से हारा
 
जो तिल-तिल जलता गया, किन्तु बुझ सका नहीं
जो रुका न पथ पर, भय-विघ्नों से झुका नहीं
जो चूक गया फिर भी निज को खो चुका नहीं
जन मुझे वही मुझे है प्यारा
 
जो पीड़ित, लांछित, दीन, दुखी दुर्बल, अनाथ 
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