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Kavita Kosh से
दर्पण में प्रतिबिंब सहस्रों कब उसको धुँधला कर पाते!
कोटि नयन के डोरे, शशि की उज्ज्वलता तिलभर तिल भर हर पाते!
विद्युत-सी जग आलोकित कर, धूमिल कभी हुई सुन्दरता!
नयी कोंपलें फूटा करतीं, जब पीले पत्ते झड़ जाते