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स्वयं वन्दिनी पिंजरे में जब तड़प रही हो माता
कौन भला केसरिकिशोर को निज कुल-धर्म सिखाता!
चढ़े कूद कर कूदकर गज-मस्तक पर, आती कैसे क्षमता!
अपने गर्जन की प्रतिध्वनि सुनकर था आप सहमता
. . .
जैसे फेंका जाल सुनहरा जादूभरा किसी ने किसीने
परख-परखकर माली ज्यों उपवन की कलियाँ बीने
कैसी थी पुकार, आ पहुंचे वीर-प्रवर घर-घर से
दीनबंधु ऐन्ड्र्यूज लाँघकर आये तट लंका का
भारत-श्री सरोजिनी ने फहरा दी विजय पताका
विविध दिशाओं से अगणित अनुगामी चल कर चलकर आये
सब बापू की और देखते थे टकटकी लगाये
एक सत्य की और लगी थीं पर बापू की आँखें
जादू था न चतुरता कोई, नहीं छद्म या छल था
उन आँखों में जो भी बल था, सत्य -प्रेम का बल था
जो विचारमय, उसको कोई मार कभी सकता है!
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