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जैसे फेंका जाल सुनहरा जादूभरा किसीने
परख-परखकर माली ज्यों उपवन की कलियाँ बीने
कैसी थी पुकार, आ पहुंचे पहुँचे वीर-प्रवर घर-घर से
एक-एक कर रत्न सभी ज्यों निकले रत्नाकर से
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पर सुभाष के रोम-रोम में भाले गड़े हुए थे
यही तड़प थी, मुक्ति मिले कैसे गोरे शासन में
चीरूँ नभ को, धरा फोड़ कर फोड़कर भी निकलूँ बंधन से
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घेर राम को ज्यों त्रेता में महासिंधु के तट पर
साधनहीन, क्षीण -तनु बैठे थे सब सखा सिमट कर सिमटकर
निज-निज पुर से रण-भू में आ पहुँचे सभी स्वराजी
थे अंगद-सुग्रीव-सदृश ज्यों कृपलानी, राजाजी
बढ़े सुधी आज़ाद शंखध्वनि करते कलकत्ते से
खिंच खिँच आया हो मधु जैसे मधुमक्खी के छत्ते से
अलीबंधु, गफ्फ़ार खान, टंडन-से थे अनुगामी
ज्यों नल-नील आदि के सँग थे जाम्बवंत निष्कामी
दीनबंधु ऐन्ड्र्यूज लाँघकर आये तट लंका का
भारत-श्री सरोजिनी ने फहरा दी विजय -पताका
विविध दिशाओं से अगणित अनुगामी चलकर आये
सब बापू की और देखते थे टकटकी लगाये
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