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[[Category:कविता]]
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कुछ क्षण रुक बोले मुनि फिर नृप का देख चाव
'राजन! मैं आया आज लिए कुछ स्वार्थ-भाव
रक्षण ऋषियों का यह तो क्षत्रिय का स्वभाव
देखते तुम्हारे यज्ञ-ध्वंस हों महाराव
हिंसक असुरों के द्वारा!
. . .

बोले मुनि, 'राजन धैर्य धरो सब सुनकर भी
असुरों से रण की युक्ति रचेगी और कभी
तुम रहो अवध में, रहे तुम्हारी सैन्य सभी
बस मुझको दे दो राम-लखन दो कुँवर अभी
निज आश्रम की रक्षा को
. . .

'पुर, परिजन, प्रिय परिवार, बंधु, धन, धाम सही
मैं दे सकता हूँ सब कुछ लेकिन राम नहीं
मुनि गूँज रहा नस-नस में मेरे नाम वही'
नृप कह न सके आगे, पलकें अविराम बहीं
परिषद डूबी उतरायी
. . .
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