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{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
}}
:::::'''सवैया'''<br><br>
हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने।<br>
नीर सनेही कों लाय अलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।<br>
प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै।<br>
या मन की जु दसा घनआनँद जीव की जीवनि जान ही जानै।। 8 ।।<br>
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