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{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
}}
:::::'''सवैया'''<br><br>
 मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।<br>
डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।<br>
एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।<br>
हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।। 9 ।।<br>
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