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नहीं रूप या रंग, नहीं वह सुन्दरता का राजसाज़
ढूँढ रही है सूखे तरु में, तितली! क्या तू आज!
सच वे फूल नहीं, तरुणी बालों में जिन्हें सजाती
नहीं बची बचीं वे कलियाँ जिनसे माला गूँथी जाती
वे पल्लव भी नहीं बैठ जिनकी छाया के नीचे
प्रेमी और प्रेमिकाओं की जोड़ी मोद मनाती
यहाँ थके माँदे परदेसी लेते नहीं बसेरा
शुक-पिक-कूजित पेड़ बना है गिलहरियों का डेरा
तितली! क्यों तू आज कुसुम -कानन से दौड़ी आयी!ठूंठठूँठ, अरी! यह कर न सकेगा समुचित स्वागत तेरा
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