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'इतनी पुलकन, उच्छ्वास! रुको, मैं चित्र अभी पूरा कर लूँ
तट की दो पतली बाँहों में मैं कैसे भर पावस निर्झर लूँ पावस निर्झर भर लूँ 
 
यह गंध नहीं बन हँसी उड़े पगली कोकिल चुप ही रहना 
 
चंचले, देख नभ हँसता है तेरे इस सुख की सीमा पर
गौरवमय नीरवता पढ़ ले , सरिते! कातर स्वर धीमा कर
 
नारीत्व कहीं न सरल समझे मेरे मन, कुछ तो मान सीख
जल भरती विद्युत्-बाला-सी नीली नभ-सरिता के तट पर
 
कच ने देखे दो नयन दूर तारों-से नभ तम में डूब चले
पूर्णेंदु बिखर कर पारे-सा चमका चरणों की दूब तले
 
ऊषा उदयाचल-शिखरों पर  करती पर करती कंचन की झड़ी रही
अस्पष्ट मधुर अनुभूति विकल मन में काँटे-सी गड़ी रही
 
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