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07:24, 19 जुलाई 2011
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तुम्हारी आमद तय थीथाप सीढ़ियों कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर पड़ीबोल गयाकिसी के पैरों कीसूरज माथे से आखों में में उतर रहाकानों ने कहा-मगर...यह तुम नहीं कई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी ही बजी होऔर तुम नहीं थीदौड़कर देहरी तक पहुंचा तोसोचता हूँकानों शिरीष का तुम्हारे पैर पेड़ भी अकेला हैओसारे पर किसी की थापों सेआमद तो नहीं दिखतीजो परिचय सड़क का सूनापन आँखों में उतर आता है, वह क्या कहीं गहरे से सांस एक भारी निकलती है...लगता है अपना ही बोझ खुद ढोया नहीं जायेगाकुछ अनाम भी रहे जिंदगी हवा मेंहाथ उठता हैतो जिंदगी सफ़ेद हलके फूलों किसी का कंधा नहीं मिलताअंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हैंउम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैंबेचैनी कीतपिश माथे में सिमट आती हैभीनीखूब-भीनी खुशबू-सी बनी रहती हैखूब पानी का छींटा भी दिलासा नहीं देतायह ख्याल आते जाने दिल को जो चाहिएवह चाहिए हीक्योंसोचना छोड़, देखने लगता हूँहर सवाल का हरदम जवाब नहीं होतातुम्हारी राह...लेकिन ऐसा तो नहीं होता किखुशबू के कल्ले-दर-कल्ले फूटते हैंकमरे के कोने में!रास्ते अनुत्तरित दिशाओं को जाते हों
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