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खिलौने रचे थे - हमने{{KKGlobal}}इस लिए{{KKRachnaकि इनसे खेलेंगे|रचनाकार=सुरेश यादवखेलने लगे अपनी मरजी से}}लेकिन ये खिलौने{{KKCatKavita‎}}करने लगे मनमानीबच्चों को खाने लगे बे खौफये खिलौने<poem>
बेकाबू हुए हैं जब छज्जे पर बैठीपाँव हिलातीनन्हीं बच्ची-सी धूपआँगन में उतरने को बहुत मचलतीसूरज से ये खिलौनेदिनभर झगरतीएकशाम होते-एक होतेहाथ झटकबेचारी को उठा लेतारोज निर्दयी सूरजऔर धूप अनमनी होकरहर शामउठ कर हम भूल गए हैंचली जाती हैसारे खेल बदहवासी मेंशाम धीरे-धीरे गहराती है जैसेखिलौने अब हमें डराने लगे हैंबच्ची रोते-रोते सो जाती है.  </poem>