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Kavita Kosh से
तुझे पाया अपने को खोकर
करूँ अनागत की चिंता क्यों, प्रभप्रभु! मैं तेरा होकर?
जब यह आत्मा चिर-अक्षय है
तू उदार है , करुणामय है
क्या फिर मुझे काल का भय है!
व्यर्थ मरूँ क्यों रोकर!
पल-पल सिमट रहा हो घेरा
पर जो प्राण अंश है तेरा
ग्रस न सकेगा उसे अँधेरा उसे अँधेरा
जागूँगा बस सोकर
यही विनय है, जब तन छूटे
मोहमयी निद्रा निद्रा तो टूटे
हार न वे कहलायें झूठे
जाऊँ जिन्हें पिरोकर
तुझे पाया अपने को खोकर
करूँ अनागत की चिंता क्यों, प्रभप्रभु! मैं तेरा होकर?
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