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'मिटे हों जो बन-बनके सपने कई
उन्हीं में उन्हींमें न रखना मुझे, निर्दई!कहीं बैठ जाना न लिखने क़िताबकिताब
सुना, शायरों की है आदत ख़राब
वे जीते हैं दुहरी यहाँ ज़िंदगी
भले ही वे करते हैं सबसे निबाह
नहीं कुछ भी अन्दर की मिलती है थाह
मुझे डर है, लफ़्ज़ों से के साँचें में ढल
न रह जाऊँ बनकर तुम्हारी ग़ज़ल
फिरूँ मैं न राधा-सी रटते ही नाम 
कछारों में जमना की ही, मेरे श्याम!' 
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