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Kavita Kosh से
सुना तुमने जिसको ज़बानी मेरी
कहूँ किस तरह का नशा वह रहा
दिया जिसने दुःख दुख अनदिखा, अनकहा
कशिश प्यार की मिट न पायी कभी
दिया था जिसे दिल के तलघर में दाब
नशीली हुई और भी वह शराब
'कटी साथ उसके जो रातें कभी
कभी प्यार लेना निगाहों से भाँप
कभी बात चलने की , सुनते ही , काँप
पलटकर छिपा लेना आँसू की बूँद
हथेली से देना मेरे होंठ होँठ मूँद
कभी मुँह पे घिरना उदासी का रंग
कभी छेड़कर मुस्कुराने का ढंग
वे दिलकश अदायें, हँसी, कहकहे
मुझे आज तक भी हैं तड़पा रहे
करूँ जोग, -जप लाख गीता पढूँ
हिमालय की चोटी पे भी जा चढ़ूँ
नहीं इससे बचने का कोई उपाय
ये वह दर्द है , जान लेकर ही जाय
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