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|संग्रह=बलि-निर्वास / गुलाब खंडेलवाल
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[[category:कवितागीत]]
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सखी री! समय-समय की बात
और नहीं तो वे ही दिन हैं, वैसी ही है रात
 धीरज-धीरज चिल्लाते जो अब प्रति सायं प्रात
कभी अधीर स्वयं झकझोरा करते थे आ गात
 
झुक-झुक थे जो हमें मनाते ज्यों कलियों को वात
मुँह लेते हैं फिरा आज वे पड़ते दृष्टि हठात
 
भूल चुके हैं जब प्रियतम ही इन नयनों की घात
किसके पास पुकारें जाकर हम अबला की जात
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