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अज्ञात के बंधन ने बुलाया मुझको
पर्वत के समीरन ने  बुलाया पर्वत के समीरण ने  बुलाया मुझको
भेजा था हिमालय ने जो गंगा के हाथ
उस पुण्य निमंत्रण ने बुलाया मुझको
 
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बल खाती हुई घूमती शैलों के शिखर तोड़ती आयी गंगा
हिम-सेज धवल छोड़ती आयी गंगा
सुनते ही धरित्री के रँभाने की भनक
ब्रह्मा के कमंडल से कढ़ी है गंगा
शिव-पाश से हँस छूट पडी है गंगा
असहाय भागीरथ भगीरथ की पुकारों से द्रवितकैलास कैलाश से यह आगे बढ़ी है गंगा
 
मुनियों ने इसे ज्ञान सहेजा अपना
द्रुत भागीरथी दौड़ी भुजा फैलाए
मिलती हों गले जैसे दो बिछुड़ी बहनें
बछड़ों से मिलें जैसे रंभाती रँभाती गायें
 
चाँदी के हिंडोलों हिँडोलों में पली हैं दोनों
चोटी से हिमानी के ढली है दोनों
गंगा ने बढ़ा हाथ छुए शिव के पाँव
हर ओर प्रपातों ही प्रपातों का प्रकाश
धरती पे गिरे टूट के जैसे आकाश
शंकर की जटाओं से कढ़ी ज्यों गंगारावण की भुजाओं ने उठाया आकाशकैलाश
 
चाँदनी इसे दूध से नहलाती है
सूरज की किरण हार-सा पहनाती है
लगता है की कि दुल्हन कोइ घूंघट कोई घूँघट काढ़े
कुहरे से हिमानी जो झलक जाती है
 
राधा है कहीं मेघ की चूनर ओढ़े
वंशी पे झुके श्याम शिखर मुंह मुँह मोड़े
चलता है अमर रास गगन के नीचे
उस एक के दिखते  हैं हजारों जोड़े
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हिमवान है गंगा का किनारा भी है
मेघों ने मुझे दूर से पुकारा भी है धरती से तो उठता हुआ आया नभ तकउस पार पहुँचने का सहारा भी है !
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