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Kavita Kosh से
सब संगी साथी एक-एक कर छूट रहे
मुझको भी कोई अब कोई उस पार बुलाता है
मैं बाँध रहा जीवन को कस-कसकर लेकिन
बंधन प्रतिपल ढीला होता ही जाता है