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Kavita Kosh से
कानों में था वही मधुर स्वर
वही गंध अलकों की उड़कर
साँसों में लहरायी
राधा ने झुक चरण छू लिया
फिर उनपर सिन्दूर धर दिया
मुड़कर अश्रु बहाती दुखिया
गयी जिधर से आयी
हरि करतल पर चिबुक टेककर
लगे सिसकने स्वप्न देखकर
तारे डूबे एक-एककर
नभ में लाली छायी
स्वप्न में राधा पडी दिखाई
पुलक उठ मनमोहन जैसे फिर खोयी निधि पायी
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