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{{KKRachna
|रचनाकार=पूनम सिंह
|संग्रह= }}
<poem>
नहीं, यह भी फालतू है
इन्हें भी फेंको
इन्हें भी और इन्हें भी
पुरानी बदरंग तस्वीरों को
नहीं लगा सकते हम
इनामिल पेन्टेड दीवारों पर
नये घर में जाना है हमें
रंग रोशनी के नये विन्यास के साथ

क्या करेंगे हम
परबाबा के इस जंग खाये
खाली संदूक का
इसे दे दो किसी कबाड़ी को
और वह अजिया सास के बनाये
मूज के पुराने सूप डलिये
मुनिया की माँ इसे तू ले जा
यह सुजनी यह झपोला और
वह हरे लाल धागों से कढ़ा
बबादमराज का दोहर भी

आजी जीवित होतीं
तो क्या मजाल थी
मैं इन्हें दे देती तुझे?

देख वह आँगन में गड़ा जांता
ओखल मूसल वह ढ़ेकी
मिक्सी ग्राइन्डर के रहते
क्या करुँगी मैं इनका
ले जा मुनिया की माँ
इसे भी तू ही ले जा

हाँ! यह खलकूटना और
वह नक्काशीदार सिलबट्टा
उसे रख दे किसी अलक्षित कोने में
सासुजी के राज में
जीवन भर पीसती रही मैं इसीपर
कठौती भर उड़द
हल्दी मिर्च मसाला

उफ! कैसी अनबूझ थी
उनकी स्वाद संरचना
कैसरॉल रहते मिट्टी के नदिये में
बिलोती थीं दही
कूकर का भात नहीं
पतीले का चावल
आमिष निरामिष की अलग रसोई
बिना नहाये ना जाये उसमें कोई
बाप रे! कितना सांस्कृतिक स्वांग रचती थीं
इस घर की स्त्रियाँ

नहीं होगा मेरे घर में यह
सांस्कृतिक विधान कभी
पुरानी वे सभी चीजें
छोड़ जायेंगे हम यहीं

अरे! कहाँ से उठा लाई तू फिर
यह भानूमति का पिटारा
हींग जाफर मिसरी शहद
नीम बहेड़ा अटर-पटर
यह सासु माँ का तिलस्मी झोला
जा री जा डाल आ इसे
किसी नदी पोखरे में
कैसी बदबू उठ रही है इससे

सुनो जी!
यह तुम क्या सहेज रहे हो
उस अंधेरी कोठरी से?
बाबूजी की पुरानी डायरी
टूटा चश्मा जर्जर कोट
यह बदरंग छाता
अरे! पागल हो गये हो क्या?
क्या करोगे इनका?
म्यूजियम बनाओगे नये घर को?

नही प्रिये!
मैं तो बस यूं ही देख रहा था
किस तरह मेरी निर्वासित आत्मा
बाबूजी की पुरानी छतरी के नीचे
बीते अषाढ़ का ठहरा पानी देखती
तृप्त हो रही है

चलो! हम खुशी-खुशी
अपने नये घर को चलें
रंग रोशनी के नये विन्यास लिये
विरासत में पुरखों की स्मृतियाँ तक
नहीं जायेंगी हमारे साथ
वे सब की सब यहीं रहेंगी
बाबूजी की छतरी के नीचे
हमारी निर्वासित आत्मा को दुलराती
हमारी निर्दयता को भुलाती।
</poem>