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{{KKRachna
|रचनाकार=पूनम सिंह
|संग्रह= }}
<poem>
मेरे बेटे!
भीगी आँखों की रोशनी में
तुम्हें हेरती हुई
लिख रही हूँ यह ख़त
नहीं लिखती
गर शेष होती उम्मीद अब भी
कि गुज़र जायेगा पानी
हर बार की तरह
इस बार भी

नहीं डूबेगा तिनका तिनका
संवेदनाओं से बुना घर
कि बचा लूंगी मैं
ढहती दीवारों से चिपकी
मकड़ियों को
यादों के गलियारे में फड़फड़ाती
तितलियों को
उन सपनों को
जिन्हें जाते हुए खूंटी पर
टांग गये थे तुम
और कह गये थे मुझसे -
‘मैं हूँ न माँ यहाँ
बिलकुल तुम्हारी आँखों के सामने’

मेरे बच्चे!
मेरी आँखों का ऐनक
निरंतर धुंधलाता जा रहा है
दूर बहुत दूर
परदेश में निकलता है अब चाँद
मद्धम गुलाबी रोशनी का
एक कतरा भी
ओस भरी आँखों से नहीं देख पाती मैं

नहीं चाहती थी बताऊँ तुम्हें
वह सब कि
थकी सांसों में अब नहीं सुलगता
कोई अग्निबीज
अंधेरी रात में जब
बढ़ने लगता है पानी का शोर
पिता नहीं बन पाते पतवार
और न मैं हो पाती उनके लिए
हौसले की मीनार

बेबसी और उदासी के भँवर में
जब डूबते होते हैं हम
रेत के टीले पर उगता है चाँद
आँखों के पानी में
झिलमिलाती है उसकी परछाई
पिपनियों से छूती दुलराती हूँ उसे
‘मैं हूँ न माँ यहाँ
तुम्हारी आँखों के सामने’
कहता है कोई

मेरे बच्चे!
मेरी आँखों का ऐनक
निरंतर धुंधलाता जा रहा है
निस्सहायता के अंधेरे में
डूबती उतराती मैं
हाथ बढ़ाकर थामना चाहती हूँ
उस भरोसे को
जो मेरी थकी सांसों के ताल पर
असाध्य वीणा की तरह पड़ा है
दूर बहुत दूर पराये देश में
निकलता है अब चाँद
तुम दूज के चाँद हो गये हो मेरे बाबू!
</poem>